यह हिंदी अनुवाद अंग्रेज़ी के मूल लेख Tamil Nadu’s DMK government uses police violence to suppress sanitation workers’ anti-privatization protest का है जो 8 सितंबर 2025 को प्रकाशित हुआ था।
स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) यानी सीपीएम के समर्थन वाली तमिलनाडु की डीएमके (द्रविड़ मुनेत्र कषगम) सरकार ने सफ़ाई कर्मचारियों पर बार-बार पुलिसिया हिंसा का सहारा लिया है। ये कर्मचारी ग्रेटर चेन्नई कॉरपोरेशन के उस फ़ैसले के ख़िलाफ़ विरोध कर रहे हैं, जिसमें हाथ से कचरा उठाने और सड़क की साफ़ सफ़ाई करने की सेवाओं को निजी कंपनियों के हाथों देने की घोषणा की गई है।
चेन्नई नगर निगम ग्रेटर चेन्नई कॉरपोरेशन (जीसीसी) ने साफ़ सफ़ाई की सेवाओं को निजी कंपनियों को सौंपने की घोषणा की थी और इसके तुरंत बाद ही सफ़ाई कर्मचारियों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। इस फ़ैसले के तहत नगर निगम के 15 ज़ोन में से दो में यानी ज़ोन 5 (रॉयपुरम) और ज़ोन 6 (थिरु वी का नगर) में साफ़ सफ़ाई के कामों को ठेकेपर दिया जाना था। जीसीसी पहले ही चेन्नई के बड़े हिस्से में साफ़ सफ़ाई सेवाओं का ठेकाकरण कर चुका है।
करीब 2,000 सफ़ाई कर्मी, इसलिए विरोध कर रहे हैं क्योंकि उन्हें पता है कि निजी ठेकेदार के अधीन उनकी पहले से ही बेहद ख़राब कामकाजी स्थिति और बदतर हो जाएगी। इन कर्मचारियों में ज़्यादातर महिलाएं हैं और जो सबसे ग़रीब दलित तबके से आती हैं। सरकार ने कई बार आंदोलन को दबाने की कोशिश की है, फिर भी कर्मचारी एक साल से ज़्यादा समय से लगातार निजीकरण के ख़िलाफ़ डटे हुए हैं। पिछले महीने 1 से 13 अगस्त तक उन्होंने दो हफ़्ते की ज़बरदस्त हड़ताल की थी।
ताज़ा पुलिसिया हमला गुरुवार 4 सितबंर को दोपहर क़रीब 12 बजे चेन्नई के 'मे डे पार्क' में हुआ, जिसे कथित तौर पर मज़दूर वर्ग के सम्मान में नाम दिया गया है। सैकड़ों कर्मचारी इस पार्क में उन दो यूनियनों—लेफ़्ट ट्रेड यूनियन सेंटर (एलटीयूसी) और उलाईप्पोर उरिमाई अयक्कम (मज़दूर अधिकार आंदोलन) की बुलाई मीटिंग में शामिल होने आए थे। यही दोनों यूनियनें इस आंदोलन की अगुवाई कर रही हैं। मीटिंग का मक़सद यह तय करना था कि हाल ही में मद्रास हाईकोर्ट ने डीएमके सरकार के निजीकरण अभियान पर मुहर लगाई थी, इसके बाद आगे की रणनीति क्या हो।
पुलिस ने इस जमावड़े को 'ग़ैर-क़ानूनी' बताते हुए अचानक पार्क के गेट बंद कर दिए ताकि और कर्मचारी अंदर न आ सकें। ज़्यादातर महिला कर्मचारी जब गेट के सामने धरने पर बैठ गईं तो महिला पुलिसकर्मियों ने उनके साथ ज़बरदस्ती खींचातानी की और उनमें से कम से कम 300 को गिरफ़्तार कर लिया। पुलिस की पांच से अधिक गाड़ियों और एक बस में उन्हें ठूंस दिया गया और अलग-अलग जगहों पर भेज दिया गया। इस दौरान वाहनों में बैठे सफ़ाई कर्मचारियों ने नारेबाज़ी की। पुलिस की इस कार्रवाई में कई कर्मचारी घायल हुए, जिनमें से कम से कम एक को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा।
पुलिस का सबसे गंभीर हमला 13 अगस्त को हुआ। उस दिन राज्य की सर्वोच्च न्यायिक संस्था मद्रास हाईकोर्ट ने जीसीसी मुख्यालय के पास स्थित रिपन बिल्डिंग के सामने धरने पर बैठे कर्मचारियों के धरनास्थल को हटाने का डीएमके सरकार को आदेश दिया। यह आदेश एक तथाकथित जनहित याचिका के बाद आया, जिसे डी. थेनमोझी नामक व्यक्ति ने दायर किया था। याचिका में कहा गया था कि धरने को हटाने के लिए पुलिस ने जो नोटिस दिए हैं, उन्हें लागू कराया जाए। रिपोर्टों के अनुसार, थेनमोझी कोई आम नागरिक नहीं बल्कि, डीएमके का आदमी है।
इस अदालती समर्थन के बाद ही, पहले से सफ़ाई कर्मियों के प्रति शत्रुता रखने वाली राज्य की डीएमके सरकार और नगर निगम ने, मद्रास हाईकोर्ट के आदेश को लागू कराने के लिए पूरी ताक़त झोंक दी।
लगभग 2,000 कर्मचारी एक अगस्त से रिपन बिल्डिंग के सामने शांतिपूर्ण तरीक़े से धरना दे रहे थे। सरकार ने दिन में टकराव से बचने के लिए आधी रात को सैकड़ों पुलिसकर्मी भेजकर ज़बरदस्ती धरनास्थल को ख़ाली करा दिया। जब पुलिस का हमला हुआ, उस समय ज़्यादातर कर्मचारी लेटे हुए थे या सो रहे थे।
पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को बेरहमी से घसीटा और पीटा, कई कर्मचारी घायल हुए और अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। पुलिस सैकड़ों हड़ताली कर्मचारियों को बसों में भरकर ले गई ताकि उन्हें और डराया-धमकाया जा सके। एक भयावह रात हिरासत में बिताने के बाद उन्हें अगले दिन छोड़ दिया गया।
सफ़ाई कर्मचारियों का समर्थन करने वाले वकील नीलवुमोज़ी सेंथमराज और क़ानून की छात्रा वलारमथि को भी गिरफ़्तार किया गया था। नीलवुमोज़ी ने एक वीडियो जारी किया जिसमें उन्होंने बताया कि उन्हें और वलारमथि को चिन्ताद्रिपेट महिला थाने में घसीटकर ले जाया गया, वहाँ उनके साथ मारपीट हुई और उनके फ़ोन ज़ब्त कर लिए गए।
कुल मिलाकर 13-14 अगस्त की रात को चार वकीलों और क़ानून पढ़ने वाले दो छात्रों को गिरफ़्तार कर लिया गया।
मद्रास हाईकोर्ट ने 14 अगस्त को इनकी गिरफ़्तारी को ग़ैर-क़ानूनी करार दे दिया और रिहाई का आदेश दिया। लेकिन साथ ही अदालत ने एक बेहद मनमाना और ग़ैर-लोकतांत्रिक शर्त भी थोप दी कि 'ये मीडिया को इंटरव्यू नहीं देंगे।'
तमिलनाडु के तीसरे सबसे बड़े शहर मदुरै में भी सैकड़ों सफ़ाई कर्मचारियों ने निजीकरण के ख़िलाफ़ इसी तरह का आंदोलन शुरू किया था और 18 अगस्त से पाँच दिन की हड़ताल की।
डीएमके को 'सामाजिक न्याय' के लिए खड़ी प्रगतिशील पार्टी बताने वाली स्तालिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) ने डीएमके से एक ज़बानी अपील की। अपनी तमिल पत्रिका ‘तीकथिर’ (चिंगारी) में सीपीएम के राज्य सचिव पी. शनमुगम ने बस इतना कहा कि 'आउटसोर्सिंग की नीति सामाजिक न्याय के ख़िलाफ़ है' और राज्य सरकार से इसे त्यागने की अपील की।
हालाँकि शनमुगम ने यह दावा किया कि उन्होंने सफ़ाई कर्मियों से मुलाक़ात की है, लेकिन सीपीएम ने चेन्नई क्षेत्र के हज़ारों औद्योगिक और अन्य कर्मचारियों को, जो पार्टी से जुड़े ट्रेड यूनियन संगठन सीटू (सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियंस) से जुड़े हैं, सफ़ाई कर्मियों के समर्थन में संगठित करने से इनकार कर दिया। सीटू ने पहले भी तमिलनाडु में मज़दूर हड़तालों से ग़द्दारी की है, जैसे सैमसंग, बीवाईडी, फ़ॉक्सकॉन और तमिलनाडु स्टेट ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन में।
कर्मचारियों को रोज़ाना 761 रुपये (9 डॉलर से भी कम) दिहाड़ी देने के मद्रास हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद निजी ठेका कंपनी ने उनकी मज़दूरी घटाकर सिर्फ़ 565 रुपये (करीब 6.65 डॉलर) कर दी। जबकि आदेश में तय मज़दूरी के अनुसार, उनकी तनख्वाह 30 दिन लगातार काम करने पर 22,830 रुपये बनती।
यही बड़ी कटौती कर्मचारियों की सबसे बड़ी चिंता है। वर्ल्ड सोशलिस्ट वेबसाइट (डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस) से बात करते हुए कर्मचारियों ने कहा कि प्रस्तावित वेतन 'मामूली' है और 'ज़रूरी सामानों की आसमान छूती क़ीमतों में यह काफ़ी नहीं है, अपने परिवार का पेट पालना मुश्किल हो रहा है।'
ये विरोध करने वाले कर्मचारी जीसीसी के स्थायी कर्मचारी नहीं थे। उन्हें ठेके पर या फिर राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन (एनयूएलएम) के तहत टेंपरेरी तौर पर रखा गया था। यह मिशन भाजपा सरकार की योजना है, जिसके तहत शहरों में ग़रीब तबके के लिए 'आर्थिक गतिविधि' बढ़ाने की बात कही गई थी। कर्मचारी लंबे समय से एनयूएलएम के तहत स्थायी नौकरी, छुट्टी का पैसा, सुरक्षा उपकरण और बीमारी में छुट्टी जैसी सुविधाओं की माँग कर रहे हैं।
कर्मचारियों ने यह भी चिंता भी जताई कि उनके पास कोई रोज़गार सुरक्षा नहीं है। ठेका कर्मचारी होने की वजह से उन्हें 'कभी भी निकाला' जा सकता है और उन्हें छुट्टी का पैसा, ओवरटाइम का पैसा या काम के दौरान लगी चोट का मुआवज़ा भी नहीं मिलता।
कई कर्मचारियों ने दशकों तक बेहद ख़तरनाक हालात में काम करने के अनुभव साझा किए। उन्होंने डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस को बताया कि उन्हें छुट्टी नहीं मिलती, यहाँ तक कि सरकारी छुट्टियों पर भी काम करना पड़ता है। बारिश, बाढ़ और कोविड-19 महामारी के दौरान भी बिना सुरक्षा उपकरण के उन्हें हाथों से कचरा, मरे हुए बिल्ली-कुत्ते तक उठाने पड़े।
जीसीसी में 15 साल से काम कर रहे एक कर्मचारी ने मीडिया को बताया कि उनकी तनख़्वाह सीधे हाज़िरी से जुड़ी है, 'अगर हम आते हैं तो पैसा मिलता है, वरना नहीं।'
ज़ोन 5 और 6 के ये कर्मचारी जीसीसी में वे आख़िरी कर्मी हैं जिनकी नौकरियाँ पूरी तरह निजीकरण से बाहर हैं। बाक़ी 11 ज़ोन में पहले ही कचरा उठाने और साफ़ सफ़ाई की सेवाएँ निजी ठेकेदारों को दे दी गई हैं।
20 अगस्त को मद्रास हाईकोर्ट ने इस निजीकरण क़दम को ये कहते हुए बरक़रार रखा कि यह डीएमके सरकार का नीतिगत फ़ैसला है। अदालत ने बस इतना निर्देश दिया कि अस्थायी कर्मचारियों को 'कम से कम उनकी पिछली तनख़्वाह के बराबर या उससे ज़्यादा' दिया जाए। लेकिन अदालत ने कर्मचारियों की मूल माँग यानी परमानेंट नौकरी पर कुछ नहीं कहा।
कर्मचारियों के विरोध को कुचलने, निजीकरण को बढ़ाने और कामों को ठेके पर देने का डीएमके के नेतृत्व वाली तमिलनाडु सरकार का यह रवैया स्पष्ट तौर पर दिखाता है कि सरकार सत्ताधारी वर्ग के उस एजेंडे के प्रति पूरी तरह बिछ गई है जिसमें कर्मचारियों का शोषण बढ़ाना, कठोर नीतियाँ लागू करना, सार्वजनिक धन को कॉरपोरेट मुनाफ़े और भारत की सैन्य ताक़त बढ़ाने में झोंकना शामिल है।
पिछले विधानसभा चुनाव में डीएमके के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने राज्य के सफ़ाई कर्मचारियों को 'स्थायी नौकरी' देने का वादा किया था। यह अब छलावा साबित हुआ है क्योंकि उनकी सरकार लगातार ठेके पर काम सौंप रही है और ठोस कचरा प्रबंधन का निजीकरण कर रही है।
अपना चेहरा बचाने के लिए एक चालाकी भरे क़दम के तहत, 14 अगस्त को यानी चेन्नई में कर्मचारियों पर हुए बर्बर हमले के अगले ही दिन, मुख्यमंत्री स्टालिन ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म एक्स (पहले ट्विटर) पर पोस्ट किया कि उनकी 'द्रविड़ मॉडल सरकार कभी भी उनकी गरिमा से समझौता नहीं करेगी और हमेशा आम लोगों का समर्थन और उनके हितों की रक्षा करेगी।'
इसी समय तमिलनाडु कैबिनेट ने सफ़ाई कर्मियों के लिए छह योजनाएँ मंज़ूर कीं। इनमें मुफ़्त नाश्ता, इलाज, आवास, 'उद्यमिता सब्सिडी' और बच्चों की पढ़ाई के लिए मदद शामिल हैं।
ये नाममात्र की योजनाएँ इसीलिए लाई गई हैं ताकि बेहद कम मज़दूरी, अस्थायी नौकरी, पुलिसिया हिंसा और कर्मचारियों की गरिमा पर हो रहे हमलों से ख़राब हो रही छवि को सुधारा जाए।
माओवादी विचारधारा के प्रभाव वाले संगठन लेफ़्ट ट्रेड यूनियन सेंटर (एलटीयूसी) ने इस आंदोलन को समेटकर सिर्फ़ सफ़ाई कर्मियों तक सीमित रखा। उन्होंने अन्य सफ़ाई या सीवर कर्मचारियों, या व्यापक मज़दूर वर्ग को जोड़ने की कोशिश नहीं की। एलटीयूसी ने बस डीएमके सरकार से खोखली अपीलें करने तक ख़ुद को सीमित रखा।
चेन्नई की ये घटनाएँ भारत में सार्वजनिक सेवाओं के व्यवस्थित निजीकरण और नौकरियों को ठेका प्रणाली पर डालने की व्यापक प्रवृत्ति को दिखाती हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, कोयला खनन, रेल और भारत का वैश्विक ऑटो उद्योग जैसे क्षेत्र भी इसी ख़तरे का सामना कर रहे हैं। कर्मचारी बार-बार अपनी नौकरियों और बेहतर वेतन के लिए संघर्ष करते हैं, लेकिन हमेशा उन्हें मौजूदा ट्रेड यूनियनों के धोखे का सामना करना पड़ता है, जिनमें सीपीएम से जुड़ा सीटू और सीपीआई से जुड़ा ऑल इंडिया ट्रेड्स यूनियन कांग्रेस (एटक) शामिल हैं। ये संगठन संघर्षों को अलग-थलग कर देते हैं और कर्मचारियों को डीएमके और कांग्रेस जैसी दक्षिणपंथी पूँजीवादी पार्टियों का पुछल्ला बना देते हैं।
मेगवाथिनी नाम के एक कर्मचारी ने डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस से बात करते हुए बढ़ती वर्ग चेतना को ज़ाहिर किया। उन्होंने कहा, 'अगर ठेकेदार और पूँजीपति मिलकर हमारा शोषण कर रहे हैं तो हम कर्मचारियों को भी उनके ख़िलाफ़ एकजुट होना होगा।'
सफ़ाई कर्मचारियों और भारत के अन्य कर्मचारियों का यह अनुभव दिखाता है कि पूँजीवाद के ख़िलाफ़ एकजुट और राजनीतिक रूप से सजग मज़दूर आंदोलन की ज़रूरत लगातार बनी हुई है। ऐसे आंदोलन को विकसित करने का मुख्य तत्व यह है कि हर कार्यस्थल पर कर्मचारियों की एक्शन कमेटियां बनाई जाएँ, जो सभी पूँजीवादी पार्टियों और ट्रेड यूनियन नेतृत्व से अलग हों।